सिंधिया और दलबदल का गणित

✍️ निधि सत्यव्रत चतुर्वेदी

मध्यप्रदेश में राजनीतिक सरगर्मियां तेज़ हो गई हैं। प्रदेश में 27 सीटों पर होने वाले उपचुनाव पर अब सब की नजर टिकी है। हालांकि चुनाव आयोग द्वारा तारीख की कोई आधिकारिक घोषणा नहीं हुई है, पर संभावना है कि अक्टूबर – नवंबर तक ये उपचुनाव हो सकते हैं। यह उपचुनाव कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं। दिग्गजों के भविष्य के साथ साथ यह उपचुनाव मध्य प्रदेश की राजनीति का भविष्य भी निर्धारित करेंगे। वर्तमान में देश में चल रही राजनीतिक उठापटक और विधायक गण के आदान-प्रदान के बीच हो रहे यह उपचुनाव यह भी निर्धारित करेंगे की आम जनता वोट की राजनीति चाहती है या नोट की। सरकार किसकी बनती है यह मायने नहीं रखता, यह एक अलग गणित है। (भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों को सरकार बनाने के लिए जितनी सीट चाहिए हैं उस संख्या में बड़ा अंतर है।) मायने रखता है कि इन 27 सीटों में से किस पार्टी को ज़्यादा सीट मिलती हैं। यह सूचक होगा जनता के जनादेश का।

ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थक विधायक कुछ हद तक कांग्रेस को चुनौती दे सकते हैं, क्यूंकि सत्ताईस (27) चुनाव क्षेत्रों में से बाईस (22) विधान सभा क्षेत्र उन सिंधिया समर्थक बागी विधायकों के हैं जो सिंधिया के साथ अब भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इन बाईस (22) सीटों में से सोलह (16) सीटें ग्वालियर – चंबल संभाग में आती हैं जो कि सिंधिया का गढ़ माना जाता है। इसके साथ मालवा की पांच (5) सीटों पर भी सिंधिया का अच्छा खासा प्रभाव है। इसलिए यहाँ सेंध लगाना कांग्रेस के लिए काफी मायने रखेगा।

बावजूद इसके, सिंधिया के लिए भी यह राह कोई फूलों की सेज नहीं है। यह एक ऐसी दो धारी तलवार पर चलने जैसा है, जहां एक तरफ सिंधिया को अपनी अहमियत और काबिलियत दोनों साबित करनी होगी, तो वहीं दूसरी ओर प्रदेश भाजपा नेताओं के अंतर्विरोध का भी सामना करना होगा। 2019 के लोकसभा चुनावों में अपनी पारंपरिक गुना सीट से हारने के बाद सिंधिया को भाजपा में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए अपनी योग्यता और उपयोगिता साबित करनी होगी। उपचुनावों में अच्छा प्रदर्शन ही इस लक्ष्य को प्राप्त करने का एकमात्र ज़रिया है। केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, प्रहलाद सिंह पटेल, थावर चंद गहलोत और फग्गन सिंह कुलस्ते सहित भगवा पार्टी के कई शीर्ष नेता मध्य प्रदेश से ही आते हैं और इस उपचुनाव पर बड़े करीब से कड़ी नज़र रखे हुए हैं। अब सारा दारोमदार सिंधिया के कंधों पर है। एक हार जो मध्य प्रदेश में भाजपा के पतन का कारण बन सकती है, वह सिंधिया और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के लिए विस्फोटक साबित हो सकती है।

पर सिंधिया की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होती हैं। लगता है कि उन्होंने ज़रूरत से ज़्यादा बड़ा निवाला खा लिया है जो अब चबाया नहीं जा रहा। इसे समझने के लिए मध्य प्रदेश की राजनीति में ज्योतिरादित्य सिंधिया की भूमिका को व्यापक रूप से देखने और समझने की ज़रूरत है। इसके मूलतः दो पहलू हैं। एक तो है सिंधिया का प्रदेश और पार्टी में कद और दूसरा सिंधिया की पार्टी और प्रदेश में पकड़। यह दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं या कहें एक साइकिल के दो पहिए। जैसे-जैसे सिंधिया का प्रदेश में कद यह वर्चस्व बढ़ेगा वैसे वैसे उनकी पार्टी में पकड़ या जगह सुनिश्चित होगी या ठीक इससे उलट जैसे जैसे सिंधिया की पकड़ पार्टी में बढ़ेगी वैसे वैसे प्रदेश में उनका कद बढ़ेगा।

यदि बात कद की की जाए तो सिंधिया भाजपा में शामिल होते ही ‘श्रीमंत महाराज’ से पार्टी के एक मामूली कार्यकर्ता बना दिये गए। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने किसी भी प्रकार से सिंधिया के आगमन पर कोई प्रतिक्रिया नहीं जताई। यहां तक की वे अब सिंधिया से मिलने की ज़रूरत भी नहीं समझते। शीर्ष नेतृत्व में ज्योतिरादित्य सिंधिया की पहुंच अब केवल जेपी नड्डा तक सीमित रह गई है। हालांकि भाजपा को प्रदेश में फिर से सत्ता में लाने के लिए मुआवजे़ के रूप में पार्टी पहले ही सिंधिया को राज्यसभा के लिए चुन चुकी है। उनके 14 वफादारों को भी मध्य प्रदेश मंत्रीमंडल में शामिल किया गया। पर सिंधिया को नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल में शामिल करने के लिए सिंधिया खेमे से उठ रही मांगों पर अभी भाजपा चुप्पी साधे है। ऊपर से सुप्रीम कोर्ट ने 22 बागी़ विधायकों के खिलाफ की गई याचिका पर संज्ञान लेते हुए मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल में शामिल किए गए सिंधिया समर्थक मंत्रियों पर भी सवालिया निशान लगा दिया है।

तस्वीरों में भी महाराज सिंधिया या तो कहीं बैग उठाते दिखते हैं या भाजपा मंत्री को चप्पल पहनाते या श्यामा प्रसाद मुखर्जी और वीर सावरकर की तस्वीरों के सामने नतमस्तक होते। भगवा रूप में अब वे इस कदर रम गए हैं कि सिंधिया नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुख्यालय जाकर हाज़िरी लगा, संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं और किसी को कानों कान खबर भी नहीं होती। कांग्रेस की मीटिंगों में सबसे आगे बैठे दिखाई देने वाले सिंधिया अब प्रधानमंत्री की मीटिंग में सबसे पीछे बैठे दिखाई देते हैं। और इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि भाजपा के तीन दिवसीय सदस्यता ग्रहण समारोह में जब सिंधिया भाजपा में शामिल होने के बाद पहली बार ग्वालियर पहुंचे तो उन्हें काफ़ी विरोध का सामना करना पड़ा। लोगों ने सड़कों पर निकल कर उनको काले झंडे दिखाए और नारेबाजी़ की। ऐसा पहली बार हुआ है कि सिंधिया घराने के किसी सदस्य का उनके ही गृह क्षेत्र में, खासकर ग्वालियर शहर में इतना कड़ा विरोध हुआ हो। जनता द्वारा चुनी गई सरकार गिराने के लिए लोगों में सिंधिया के खिलाफ काफी आक्रोश है।

यह सब परिस्थितियां एक ही ओर इशारा करती हैं कि सिंधिया कितनी भी कोशिश करें, उनका कद और उनकी पकड़ अपने गढ़ और अपने लोगों के ऊपर कमज़ोर होती जा रही है। यदि सिंधिया को राज्य में कोई अहम पद नहीं मिलता है और ना ही उन्हें केंद्रीय मंत्री मंडल में शामिल किया जाता है तो क्या यह इस बात का संकेत है कि सिंधिया पार्टी में अपनी जगह नहीं बना पाए हैं? और यदि उनको मंत्री पद मिल भी जाता है तो क्या कैबिनेट मंत्री बनाया जाएगा या फिर सिंधिया को राज्य मंत्री पद से ही संतुष्टि करनी पड़ेगी। जिस व्यक्ति को मध्य प्रदेश का उप मुख्यमंत्री पद गवारा नहीं था, जो यूपीए काल में दो बार कैबिनेट मंत्री रह चुका है, क्या वह महाराज अपना कद छोटा करके राज्य मंत्री बनने को तैयार होंगे? क्या इन परिस्थितियों में सिंधिया के साथ खड़े 22 विधायक उनका साथ देंगे? एक व्यक्ति जो राज्य में राजा हो सकता था भाजपा मैं शामिल होकर पहले कार्यकर्ता बना और फिर मात्र राज्यसभा सांसद होकर ही रह गया। रही सही कसर कांग्रेस ने पूरी कर दी जो सिंधिया को दरकिनार कर आने वाले उपचुनाव कमलनाथ बनाम शिवराज के नाम पर लड़ रही है। इन सभी समीकरणों को समग्र रूप से देखने में तो लगता है कि सिंधिया अपना जनाधार और ख़्यति दोनों ही खोने लगे हैं। ऐसे में एक बहुत बड़ा सवाल है कि क्या सिंधिया उपचुनाव में अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं?

वहीं दूसरी ओर लगने लग गया है कि
मध्य प्रदेश की राजनीति में जिस व्यक्ति विशेष को भाजपा तुरुप के पत्ते के तौर पर लेकर आई थी, वह आज उसके ही गले की हड्डी बन गया है। भाजपा की राज्य इकाई में गंभीर परिस्थितियां और स्तिथि बन गई हैं। कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए नेताओं को तवज्जो मिलने से अब पार्टी के पुराने नेताओं में नाराजगी बढ़ रही है। अपनी ही पार्टी से उपेक्षा और अपमान महसूस कर रहे भाजपा नेताओं में अब बगावत के सुर नजर आने लगे हैं। इन नेताओं में से ज्यादातर भाजपा नेता वे हैं जो 2018 में उन कांग्रेस नेताओं के खिलाफ चुनाव लड़े और हारे थे जो अब भाजपा में शामिल हो गए हैं। अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों को अपने क्षेत्र की कमान सौंप अपना राजनीतिक भविष्य दांव पर लगाना इन नेताओं के गले नहीं उतर रहा है। दतिया जिले की सेवड़ा विधानसभा से पूर्व विधायक रामदयाल प्रभाकर, अनुसूचित जनजाति के वरिष्ठ नेता डॉ गौरीशंकर शेजवार, वरिष्ठ नेता रघुनंदन शर्मा, बदनावर सीट से भंवर सिंह शेखावत, जबलपुर जिले की पाटन विधानसभा क्षेत्र से अजय विश्नोई, आगर विधानसभा क्षेत्र से विजय सोनकर, सागर जिले की सुर्खी विधानसभा से सुधीर यादव, आदि सभी ऐसे नाम है जो पार्टी से नाराज़ चल रहे हैं।

दिग्गजों की बात करें तो जय भान सिंह पवैया, प्रभात झा, दीपक जोशी, अनूप मिश्रा और माया सिंह जैसे अनेक नाम हैं जिन्होंने खुलकर अपनी नाराजगी ज़ाहिर की है। जयभान सिंह पवैया 2014 में ज्योतिरादित्य सिंधिया और 1998 में माधवराव सिंधिया के खिलाफ चुनाव लड़ चुके हैं। पवैया सिंधिया के पार्टी में शामिल होने के सख्त खिलाफ़ हैं और इस उपचुनाव में सिंधिया और उनके समर्थकों के लिए काम करने के लिए साफ़ मना कर चुके हैं।

भाजपा राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा का भी सिंधिया के साथ छत्तीस का आकड़ा रहा है। पार्टी बदलने के कुछ महीनों पहले ही झा ने सिंधिया के ख़िलाफ़ तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ से शिकायत की थी। मामला शिवपुरी में सरकारी जमीन को ट्रस्ट के नाम पर हड़पने का था। झा वैसे भी सिंधिया के खिलाफ अपने शब्द भेदी बांण चलाते आए हैं। दीपक जोशी पूर्व सीएम कैलाश जोशी के बेटे हैं और देवास जिले की हाटपिपल्या विधानसभा सीट से विधायक रह चुके हैं। जोशी, जो शिवराज सिंह चौहान की सरकार में बतौर मंत्री रह चुके हैं, 2018 के विधानसभा में मनोज चौधरी से चुनाव हार गए थे। अब मनोज चौधरी के भाजपा में शामिल होने की वजह से वे नाराज़ है। भाजपा ने उन्हें उपचुनाव के लिए बनाई गई संचालन समिति में भी शामिल किया है, लेकिन वो मानने को तैयार नहीं हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री अटल बिहारी बाजपेई के भतीजे / भांजे अनूप मिश्रा, जिनको 2019 में मुरैना लोकसभा सीट से टिकट नहीं मिला था, समिति मैं आने के बाद अब कुछ नरम पढ़ गए हैं। इसी तरह पूर्व मंत्री माया सिंह ग्वालियर राजघराने की सदस्य होने के बावजूद सिंधिया की कट्टर विरोधी रही हैं और सिंधिया के पार्टी में शामिल होने से नाराज चल रही है। उन्हें भी उपचुनाव के लिए बनाई गई संचालन समिति का सदस्य बनाया गया है।

इनके अलावा कुछ नाम ऐसे भी हैं जो पार्टी छोड़ कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। प्रेमचंद गुड्डू, बालेन्दु शुक्ल और कन्हैया लाल अग्रवाल यह वो नाम है जो कहीं न कहीं सिंधिया के भाजपा में शामिल होने को लेकर खुश नहीं थे। ये नेता अपने क्षेत्रों में अच्छी पकड़ रखते हैं और भाजपा को कड़ी चुनौती देने की क्षमता भी रखते हैं। प्रेमचंद गुड्डू और बालेन्दु शुक्ल दोनों ही पुराने कोंग्रेसी हैं और सिंधिया विरोधी भी। बालेन्दु शुक्ल ग्वालियर चंबल क्षेत्र का एक सशक्त ब्राह्मण चेहरा माने जाते हैं। एक समय पर वे माधवराव सिंधिया के काफ़ी करीबी माने जाते थे। शिवराज सरकार में मंत्री रह चुके कन्हैया लाल अग्रवाल के कांग्रेस में शामिल होने से भाजपा को एक तगड़ा झटका लगा है। अग्रवाल के साथ उनके 400 समर्थक भी कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। माना जा रहा है कि सिंधिया के गढ़ में सेंध लगाने में अग्रवाल की काफी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। क्या उप चुनाव से ठीक पहले उठ रहा असंतोष भाजपा के लिए घातक साबित हो सकता है? सिंधिया और उनके समर्थकों के लिए इस विरोध के क्या मायने हैं और यह किस तरह उनका भविष्य निर्धारित करेगा? क्या इससे कांग्रेस को फायदा होगा?

यदि उपचुनाव में भाजपा की जीत होती है तो सिंधिया का वर्चस्व न सिर्फ प्रदेश बल्कि पार्टी में भी मज़बूत हो जाएगा और उनको केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल करने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। पर यदि ऐसा नहीं होता है तो सिंधिया और उनके 22 समर्थक विधायकों का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा। एक बात तो तय है कि यह जरूरी नहीं कि यदि आपके पास संख्या है तो आपने जीत भी सुनिश्चित कर ली। राजनीति का गणित अलग तरीके से ही गुणा भाग करता है। और इस बात को ज्योतिरादित्य सिंधिया से अच्छा और कोई नहीं समझ सकता।

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