नई शिक्षा नीति: सम्भावनाएं और खतरे, पढ़े पूरी खबर….

नई शिक्षा नीति की घोषणा कर दी गई. इस नीति में संरचनात्मक एवं अध्यापन संबंधी दोनों पहलुओं को शामिल किया गया है. शिक्षा के इन मूल क्षेत्रों में बदलाव के माध्यम से सरकार शिक्षा पर खर्च को बढ़ाना चाहती है. यह देखना दिलचस्प होगा कि आखिर सरकार इसे किस तरह से लागू करती है. वैसे सवाल भी बहुतेरे हैं. 2035 तक सकल नामांकन अनुपात में 50 प्रतिशत तक बढ़ोतरी पर मौजूदा वास्तविक स्थिति को लेकर बार-बार सवाल उठते हैं. आइए इस पर एक विश्लेषण पढ़ते हैं दिल्ली विवि के एसोसिएट प्रोफेसर कुमार संजय सिंह का.

नई शिक्षा नीति (2020) की शुरुआत 29 जुलाई 2020 को की गई. अपने आप में इसका पैमाना व्यापक है, क्योंकि इस नीति से देश की शिक्षा के ढांचे को दुरुस्त करने की चाहत है. इसका मकसद प्राथमिक और उच्च शिक्षा दोनों को पूरी तरह से जांच करके दुरुस्त करना है. इस नीति में संरचनात्मक एवं अध्यापन संबंधी दोनों पहलुओं को शामिल किया गया है.

नई शिक्षा नीति के आधार वाक्य में आठ नीतियों पर जोर दिया गया है: –

1. स्कूली शिक्षा और प्राथमिक स्कूली शिक्षा

2. स्कूल के बुनियादी ढांचे और संसाधन

3. छात्रों का समग्र विकास

4. समावेशिता

5. आकलन

6. पाठ्यक्रम और शैक्षणिक ढांचा

7. शिक्षक भर्ती / शिक्षक शिक्षा

8. सरकारी विभागों / निकायों / संस्थानों की भूमिका

शिक्षा के इन मूल क्षेत्रों में बदलाव के माध्यम से सरकार शिक्षा खर्च को बहुत अधिक बढ़ाना चाहती है और वर्ष 2035 तक सकल नामांकन अनुपात को 50 फीसदी तक बढ़ोतरी चाहती है. भारत को वैश्विक ज्ञान महाशक्ति बनाने के अंतिम लक्ष्य के साथ शिक्षा प्रणाली में नवाचार और रचनात्मकता को शामिल किया गया है. शैक्षणिक दृष्टि से यह प्राथमिक और उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में व्यापक बदलाव है. स्कूल के स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान कम से कम पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाने को बढ़ावा देना है. इसी तरह से कला के प्रति उदार दृष्टिकोण पर जोर देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है. यह अकादमिक विषयों को व्यावसायिक शिक्षा के साथ जोड़ती है. इसके अनुसार, प्राथमिक शिक्षा के लिए उदारवादी कलात्मक रुख चाहिए ताकि व्यावसायिक शिक्षा को बढ़ावा मिले.

स्कूली शिक्षा में तीन बुनियादी चरण शामिल होगा ( 3 वर्ष की उम्र से 8 वर्ष तक ), प्रारंभिक चरण ( 8 वर्ष से 11वर्ष तक ), मध्य चरण ( 11 वर्ष से 14 वर्ष तक ) और माध्यमिक चरण ( 14 वर्ष से 18 वर्ष तक ) माध्यम से पढाया जाना है. उच्च शिक्षा में लिबरल ऑर्ट्स कार्यक्रम में शैक्षणिक विषयों को व्यावसायिक शिक्षा से जोड़ता है और कोई भी शिक्षण/विषय पढ़ने के लिए किसी भी छात्र की मूल पात्रता पर जोर नहीं देता.

इसके अलावा कला और विज्ञान में मौजूदा तीन साल के अंडर ग्रेजुएट कार्यक्रम को बढ़ाकर चार साल का कर दिया गया है. हालांकि छात्र के पास एक साल (सर्टिफिकेट प्रोग्राम), दो साल (डिप्लोमा प्रोग्राम) या तीन साल (डिग्री प्रोग्राम) के बाद छोड़ देने का विकल्प है. जो छात्र शोध में अपना करियर बनाना चाहते हैं, उन्हे चौथे साल का विकल्प चुनना होगा. छात्र की गतिशीलता को बढ़ावा देने के लिए उदार कलात्मक दृष्टिकोण पर जोर देते हुए इससे जुड़े व्यावसायिक शिक्षा को उच्च शिक्षा में भी ले जाया गया जहां इसे च्वॉइस आधारित क्रेडिट सिस्टम (सीबीसीएस) के साथ छात्रों के पास अपने क्रेडिट बचाए रखने और एक समय के बाद फिर से उस पाठ्यक्रम में शामिल होने का विकल्प है.

इस नीति में उच्च शिक्षा के संस्थानों को व्यापक रूप से पुनर्गठित करने का प्रस्ताव है. इसकी शुरुआत मानव संसाधन विकास मंत्रालय यानी एचआरडी का शिक्षा मंत्रालय फिर से नामकरण के साथ की गई है. प्रधानमंत्री के नेतृत्व में केंद्रीयकृत राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (आरएसए) होगा. यह निर्णायक सर्वोच्च संस्था होगा जो शैक्षिक संसाधनों और कौशलों के सृजन को बढ़ाने और गतिविधियों से जुड़े सभी स्तरों और प्रक्रियाओं पर निर्णय लेने, उनकी निगरानी करने और नियमन करने का काम करेगा.

इस आयोग में केंद्रीय मंत्री और केंद्र से जुड़े वरिष्ठ नौकरशाह होंगे. अपनी कार्यकारी परिषद के माध्यम से यह आरएसए नियुक्त किए गए मिशन को बजटीय प्रवाधान करने, योजनाओं की समीक्षा करने और संस्थाओं की निगरानी करने करेगा. यह अलग से निधि और मानक तय करेंगे और उच्च शिक्षा के संस्थानों (एचईआईज) को मान्यता देंगे व विनियमित करेंगे. निजी और सार्वजनिक दोनों के लिए समान विनियामक और परिणाम के मानदंड विकसित किए जाएंगे. इस नीति में संबद्धता की तरह के विश्वविद्यालयों को बंद करने का प्रस्ताव है. उनकी जगह तीन तरह के संस्थान बनेंगे. 1 बहु विषयक अनुसंधान विश्वविद्याल (पहला प्रकार), बहु विषयक शिक्षण विश्वविद्यालय (दूसरा प्रकार)और स्वायत्त बहुविषयक कॉलेज (तीसरा प्रकार). शिक्षकों की नियुक्ति और बने रहने के लिए योग्यता आधारित मानदंड पर जोर दिया गया है. यह मानना सरल होगा कि इस पैमाने पर सुधार शुरुआती समस्याओं के बगैर लागू किया जा सकेगा. इसलिए शिक्षा में सुधार के एक महत्वाकांक्षी नीति के जन्म के कष्ट का सार पेश करना सार्थक होगा जो नई शिक्षा नीति 2020 का एक सांचा पेश करता है.

यूरोप में वर्ष 1998-1999 में बोलोग्ना कन्वेंशन शुरू हुआ था. इस प्रक्रिया ने प्रतिभागी देशों के लिए सुधार के लिए लक्ष्य निर्धारित किए, जैसे कि तीन चक्रीय डिग्री का स्वरूप (स्नातक, स्नातकोत्तर और डॉक्टर की उपाधि ) और यूरोपीय साख हस्तांतरण और संचय प्रणाली (ईसीटीएस) और यूरोपीय उच्च शिक्षा क्षेत्र (ईसीजी) में गुणवत्ता आश्वासन के लिए यूरोपीय मानक और दिशा निर्देश जैसे साझा प्रपत्र को स्वीकार किया गया. इसके तहत गुणवत्ता की गारंटी भी सुनिश्चित होती है, ताकि छात्रों, स्नातकों, विश्वविद्यालयों और अन्य सभी अन्य साझेदार विभिन्न प्रणालियों की गुणवत्ता और विभिन्न पोषणकर्ताओं के काम में विश्वास कर सकें.

एक विवादास्पद सवाल है क्या नई शिक्षा नीति (2020) से ठगी करने का खतरा होगा ? यहां नीति में कुछ मौन और विरोधाभास प्रासंगिक हो जाते हैं. नीति के उद्देश्य से पहले महत्वपूर्ण बाधा और 2035 तक सकल नामांकन अनुपात में 50 प्रतिशत तक बढ़ोतरी के सवाल पर मौजूदा वास्तविक स्थिति को लेकर बार-बार उठने वाले सवाल हैं. सकल नामांकन अनुपात में इस तरह की क्वांटम छलांग के लिए बुनियादी ढांचे में एक आनुपातिक वृद्धि की आवश्यकता होगी. प्राथमिक शिक्षा के लिए धन कहां से आएगा ? नीति इस पर अनिश्चित स्थिति में है, यह निजी और लोक हितैषी योगदान की उम्मीद करती है. हालांकि, इतिहास बताता है कि ग्रामीण प्राथमिक शिक्षा में इस तरह के योगदान दुर्लभ है. नीति के दस्तावेजों के अनुसार, ऑनलाइन डिस्टेंस लर्निंग (ओडीएल) और बड़े पैमाने पर ऑनलाइन पाठ्यक्रम (एमओओसी) के माध्यम से विस्तार को इसे 50 फीसदी तक बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए.

हालांकि, कोविड 19 के लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन शिक्षण के हालिया उदाहरण से पता चलता है कि यह उन गरीब वर्गों के खिलाफ है जो ऑनलाइन पाठ्यक्रमों तक पहुंचने के लिए आवश्यक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का खर्च नहीं उठा सकते हैं.

इस नीति में वर्तमान बाजार उन्मुख पाठ्यक्रमों का पक्ष लेने के लिए एक इनबिल्ट प्रवृत्ति भी है, जो उच्च शिक्षा के पहले से ही कमजोर अनुसंधान और विकास क्षमता के प्रतिकूल हो सकती है. चार साल के अंडर-ग्रेजुएट प्रोग्राम का लागू करने शिक्षा की लागत पर एक साल का खर्च और बढ़ेगा होगा, जो मध्यम वर्ग के परिवारों के लिए कमजोर साबित हो सकता है. हम मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के कई मेधावी छात्रों को अनुसंधान और उच्च शिक्षाविदों में कैरियर चुनने की जगह आर्थिक मजबूरी के की वजह से पढ़ाई छोड़ने के विभिन्न चरणों में वे छोड़ सकते हैं. इस प्रवृत्ति को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि नई शिक्षा नीति फीस संरचना को पूरा करने के लिए शैक्षिक ऋण की वकालत करती है. यह नीति उद्योग और वाणिज्यिक व्यवसायों की अनुसंधान और विकास आवश्यकताओं के साथ एचईआई में अनुसंधान क्षमता को आगे बढ़ाने की वकालत करती है. इस तरह, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान दोनों में सिद्धांत रूप में आगे के शोध को पूरी तरह से निचोड़ कर खत्म कर दिया यह लाभदायी होगा.

लेखक- कुमार संजय सिंह (एसोसिएट प्रोफेसर,इतिहास विभाग दिल्ली विश्वविद्यालय)

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