पत्रकारिता: लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का ‘खोखलापन’ ?

पत्रकारिता और राजनीति का चोली दामन का साथ कोई आज से नहीं बरसों पुराना है।
एक दौर हुआ करता था जब सत्ता पक्ष से निडरता से सवाल पूछना ही पत्रकारिता का धर्म माना जाता था वो दौर कुछ ऐसा था कि जिस ने देश को कई बड़े, नामी, ईमानदार पत्रकार दिए।जिनकी विश्वसनीयता पर नाम मात्र का भी संदेह नहीं हुआ करता लेकिन आज हम कहें कि यह पत्रकारिता का सबसे बुरा दौर चल रहा है जिसमें पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों का उपहास स्वयं पत्रकार ही राजनीतिज्ञों के साथ मिलकर दो-दो हाथों से उड़ा रहा है और पत्रकारिता के इस दयनीय स्थिति पर चिंतित होने की बजाय अपने बैंक बैलेंस और चैनल की टीआरपी को बढ़ता देख खुश हो रहा है तो यह पत्रकारिता और देश दोनों के भविष्य से खिलवाड़ है। लेकिन उससे भी दुखद ये है कि एक बहुत बड़ा तबका इस हकीकत से भलीभांति परिचित होते हुए भी मूक है क्योंकि वो भी इसमें भागीदार है या इस महाशक्ति के आगे मजबूर। गलती से कोई पत्रकार या नागरिक सवाल कर भी ले तो उसके लिए राष्ट्रविरोधी, गद्दार, पाकिस्तान चले जाओ जैसे कई तमके और ट्रोल आर्मी तैनात रहती ही है।

आज हम न्यूज़ चैनलों पर देखें दो सुबह से शाम तक जाति धर्म की नीचता भरी छींटाकशी और गंदगी बखूबी पूरी ईमानदारी से परोसी हुई मिलती है। जब देश एक भीषण महामारी कोरोना से त्रस्त है उस स्थिति में भी हमारे देश के नंबर वन व विश्वसनीय है कहे जाने वाले न्यूज़ चैनलों ने अपने प्राइम टाइम में हिंदू मुस्लिम डिबेट करा कर अपने परंपरागत सिलेबस को छोड़ना गवारा ना समझा। आलम कुछ इस तरीके से बना हुआ है कि जब प्रवासी मजदूरों का पलायन हो रहा था उस दौरान भी यह कथित नंबर वन व विश्वसनीय चैनल उन मजदूरों की लाचारी बेबसी को चंद राजनेताओं के भाषणों, उनके फोटोग्राफ मात्र के लिए दी गई कुछ एक सेवाओं का घंटों आलाप रागते नहीं थक रहे थे बात किसी एक चैनल की करें तो यह अपने आप से बेमानी होगी और उन चैनलों के साथ भी नाइंसाफी होगी जो खुद इसी होड़ में आगे निकलने की दिन-रात कोशिशें कर रहे हैं। पत्रकारिता एक व्यवसाय तो शुरू से ही रहा है, विज्ञापन इसका मुख्य आय का स्त्रोत बना हुआ है लेकिन जब पूरा देश जज़्बाती तौर पर मेड इन चाइना का बहिष्कार करने को तैयार है वहीँ ये चैनल्स चीनी उत्पादों के प्रचार से करोड़ों वसूलने में व्यस्त दिखाई पड़ते है। पत्रकारिता की इस दुनिया में उद्योगपतियों व राजनेताओं का दामन पकड़ कर एक छोटा सा संस्थान भी भारत के नंबर वन होने का तमका लेने की जद्दोजहद में नजर आता है, लेकिन इस होड़ में अपने पत्रकारिता धर्म को भूलकर राजनीतिक चाटुकारिता में इस तरह लिप्त हो जाना कि एक प्रवासी, भूखी, मरी हुई मां के पास रो रहे नन्हें से बच्चे से हमदर्दी दिखाना और उसकी इस हालत के लिए जिम्मेदार लोगों पर सवाल उठाना भी इन्हें मानो पाप सा लगा।
हुक्मरानों सत्ताधारियों से सवाल पूछने का दौर तो जैसे बहुत पीछे छूट गया अब पत्रकारिता होती है तो सिर्फ प्रेस विज्ञप्तियों पर और नेताओं के जारी किए फरमानों पर और यदि इस बीच कोई ईमानदार पत्रकार अपने साहस से किसी राजनेता या अधिकारी से सवाल-जवाब कर भी लेता है या कोई सच्ची स्टोरी लाता भी है तो इन चैनल की पॉलिसी और अपने सीनियर्स का राजनीतिक दबाव इन पर इतना बढ़ जाता है कि या तो उसे अपनी खबर को रोकना होता है या आदतन उसे निकाल दिया जाता है या उसे मज़बूरन जॉब छोड़नी पड़ती है।

वैसे भी जब कोरोना के चलते मीडिया इंडस्ट्री में धंधे चौपट है। कई छोटे प्रिंट मीडिया के पत्र-पत्रिकाओं के दफ्तरों पर तो ताले पड़ चुके है। उस स्थिति में कई बुद्धिजीवी, अनुभवी पत्रकारों को भी अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है उस बीच ऐसी हिमाक़त करने वाले ईमानदारों को भला झेल कर कौन अपना ओर नुकसान करायेगा।

कुछ केसों में तो यह भी मिला है कि इमानदारी से पत्रकारिता करने वाले लोगों को किसी मसलों में उलझाकर उन्हें मुख्यधारा से काट दिया जाता है गौरतलब है इनकी हत्या होना भी सामान्य सी बात हो गई है क्योंकि बड़ी ही सफाई से इन सारे मामलों को रफा-दफा कर दिया जाता है और स्थिति जब ऐसी हो कि एक पूरा धड़ा ही किसी विशेष विचारधारा या व्यक्ति से प्रभावित हो या कहें कि उसके खौफ से मजबूर हो उस स्थिति में अपने पत्रकार बंधु के सही होते हुए भी साथ देना किसी पत्रकार या संस्था के लिए खतरे से खाली नहीं होता। बावजूद इन सभी परिस्थितियों के देश में आज भी कहीं ऐसे पत्रकार निरंतर पत्रकारिता की रक्षा के लिए और देश की जनता को पूरी सच्चाई दिखाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालकर पूरी श्रद्धा और इमानदारी से पत्रकारिता के मूल्यों का पालन कर रहे वह बात ओर है कि वह इन नामीग्रामी न्यूज़ चैनलों की स्क्रीन के ऊपर हमें दिखाई नहीं देते, ना ही उनकी इतनी फैन फॉलोइंग होती है, ना ही उन्हें कभी कोई किसी अवार्ड से सम्मानित करता है और ना ही उनके पास इतना रुपया पैसा है कि वह इन बड़े-बड़े राजनेताओं तक संबंध स्थापित कर सकें। लेकिन उनकी कलम में वह इमानदारी की ताकत जरूर है जो कि इन सत्ताधारीयों की कुर्सी हिलाने के लिए काफी है। शायद इसीलिए आज भी कहीं ना कहीं इन चैनलों और राजनेताओं के मन में पत्रकारिता का एक ख़ौफ़ बना हुआ है।

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि जब देश कोरोना जैसी महामारी से त्रस्त हो तो हमें अपनी सरकार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होना चाहिए। लेकिन छद्म राष्ट्रवाद की इस आंधी में पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों को उखाड़ फेंकना ना राष्ट्रवाद सिखाता है ना ही धर्म। क्योंकि पत्रकारिता के इन नैतिक मूल्यों का उद्गम ही राष्ट्रवाद की प्रचंड भावना के साथ हुआ था तो फिर आज के परिपेक्ष्य में गलत कैसे हो सकते हैं ? लेकिन यह हमें समझना होगा कि आज कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक महामारी सांप्रदायिकता बन चुकी है जिसके यह न्यूज़ चैनल और स्टार पत्रकार आदी हो चुके हैं और शायद यही कारण है कि आए दिन इन न्यूज़ चैनलों के स्टार पत्रकारों पर केस और इनकी गिरफ्तारी की मांग सोशल मीडिया पर ट्रेंडिंग करती रहती है। यह दो विचारधाराओं के टकराव के कारण बनी स्थितियों के कारण ही संभव हो सका है लेकिन इस बीच भी पत्रकारिता जैसी न्यायसंगत यज्ञवेदी पर इन भ्रष्ट पत्रकारों का भद्दी भाषा का प्रयोग करना पत्रकारिता को शर्मसार तो करता ही है वहीं बड़े पैमाने पर लोगों का पत्रकारिता/पत्रकारों पर से विश्वास भी कमजोर करता जा रहा है।

बीमारी के फैलाव,मजदूरों व मध्यम वर्ग की बेबसी और सीमाओं पर बढ़ते तनाव में यथास्थिति दिखाना या उस पर सरकार से सवाल-जवाब करना तो कहीं दूर रहा इन्हें फुर्सत ही नहीं होती चंद राजनेताओं के जुमले भरे भाषणों और स्टोरियों को आडम्बरों और चाटूकारिता का तड़का लगाकर परोसने से।
लेकिन इनकी ये खासियत भी है कि देश की स्थिति चाहे जो हो देश की जनता में किस तरीके का प्रोपेगेंडा सेट करना है, उन्हें किस तरह कितना भ्रमित करना है, यह अपनी भड़काऊ हैडलाइन और ग्राफिक्स के जरिए बखूबी करने में सक्षम है। पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों में भाषाशैली, प्रस्तुतीकरण जैसे महत्वपूर्ण बिंदु तो इन्हें मानो आज के दौर की पत्रकारिता में रास ही नहीं आते। कुल मिलाकर एजेंडा साफ होता है कि किसी विशेष धर्म संप्रदाय राजनीतिक पार्टी और राजनेताओं का उपहास उड़ाया जाए उन्हें नीचा दिखाया जाए और इसी रास्ते से खुद की टीआरपी को और चंद राजनेताओं की नजरों में खुद को ऊपर उठाया जाए। इस स्थिति में क्या ज्यादा समय तक सच्ची पत्रकारिता का ईमान धर्म बना रहेगा या यह कथित स्टार पत्रकार बने रहेंगे यह देखना रोचक होगा।
लेकिन स्थिति यहीं रहीं तो लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहे जाने वाली पत्रकारिता खोखली जरूर हो जायेगी।

कुलदीप नागेश्वर पवार (पत्रकार)
पत्रकारिता भवन इंदौर
8878549537

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