देश में ऑनलाइन पढ़ाई की वास्तविकता का डरावना चेहरा

कोरोना के चलते लंबे अरसे से सारे शैक्षणिक संस्थान बंद है। ताकि इस लाइलाज बीमारी के फैलाव को कम किया जा सकें। लेकिन इसी बीच घर बैठे अभिभावकों की चिंता बतौर समाधान निकली गई एक युक्ति “ऑनलाइन क्लासेज” ने बढ़ा दी है। शुरुआती दौर में इसका उपयोग नामी शैक्षणिक संस्थानों ने अभिभावकों से कोरोना काल में फीस वसूलने के लिहाज से किया। लेकिन देखते ही देखते ये प्रचलन में आ गया और शिक्षा रूपी व्यवसाय चलाने वाले व्यापारियों के साथ-साथ सरकार ने भी इसे स्वीकृत कर दिया।
आज स्थिति ये है कि प्राइवेट स्कूलों व कोचिंग में जहां मोटी रकम बतौर फीस जमा हुई है वहां तो कुछ मायने में पढ़ाई जारी है जिसका एक प्रमुख कारण है कि वहाँ के लगभग सभी विद्यार्थियों के पास ऑनलाइन स्ट्डी के लिए जरूरी संसाधन जैसे स्मार्टफोन, लेपटॉप, हाई स्पीड इंटरनेट कनेक्शन इत्यादि उपलब्ध है।
लेकिन विचारणीय है कि अगर सरकारी स्कूलों की स्थिति पर गौर किया जाए जहाँ गरीब, निम्न तबक़े के विद्यार्थी अध्ययनरत है जिनके पास पढ़ने के लिए आधारभूत संसाधनों जैसे कि कॉपी, क़िताब,स्टेशनरी भी सही समय पर उपलब्ध नहीं होती है क्या उस परिस्थिति में वे विद्यार्थी सरकार की इस डिजिटल इंडिया की खोखली क़वायद ऑनलाइन स्टडी का लाभ उठा पा रहे होंगे ?

स्वभाविक सी बात है कि हम देश-प्रदेश की स्थिति से अच्छे से चित-परिचय है। सरकार ने ही अपने 6 साल के कार्यकालों की उपलब्धि में जारी किए आंकड़ो के मुताबिक़ बताया कि बीते 6 सालों में उन्होंने कई ऐसे गांवों में बिजली उपलब्ध कराई है जो बेबसी के अंधेरे में जीने को मजबूर थे। उन्होंने बताया कि किस प्रकार इस कोरोना संकट की स्थिति में लाखों-करोड़ों लोगों को भोजन व राहत सहायता अलग-अलग माध्यमों से अपने कार्यकताओं के सहयोग से उपलब्ध कराई जो निश्चित ही सराहनीय कार्य है लेकिन क्या फिर इस परिस्थिति में उसी निम्न व गरीब तबके से ये उम्मीद करके उसका मजाक बनाने जैसी नहीं लगती कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले उनके बच्चों को वे ऑनलाइन स्टडी के नाम पर जरूरी सारी महंगी वस्तुएं उपलब्ध करा सकते है ये बात कुछ कम ही रास आती है।

एक पल के लिए यदि मान भी लिया जाए कि भारत के सभी राज्यों में औसतन गरीबी के आंकड़े चमत्कारिक रूप से नीचे आ गए और सभी का जनजीवन सामान्य स्थिति में है जहाँ पर वे सभी जरूरी वस्तुओं का उपभोग करने में आत्मनिर्भर हो चुके है फिर भी क्या हमारे पास वो इंफ्रास्ट्रक्चर है या इतनी तकनीकी विकसित है कि हम हर पिछड़े सुदूरवर्ती इलाकों में ऑनलाइन स्टडी रूपी इस मुंगेरी लाल के हसीन सपने को सच कर पाए ?

हाँ!परिस्थितियों में उस समय सुधार अवश्य हो सकता था जब डिजिटल इंडिया की क़वायद को ज़मीनी स्तर पर मूर्त रूप देने के लिए प्रयास किये गए होते लेकिन दुःखद है कि भारत की शिक्षा व्यवस्था जो कि घोटालों व व्यापार का अड्डा बन चुकी है उसकी बेहतरी के लिए किसी को कोई चिंता फिक्र ही नहीं है।
जब भी आग लगती है जिम्मेदार व हुक्मरान अधिकारियों को आनन-फानन में निर्देश जारी करते है और मीडिया उन जारी निर्देशों पर मलाई लगाकर एक मनमोहक स्टोरी के रूप में चैनलों व अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर परोस देता है, लेकिन असल जिंदगी में वो निर्देश कितने फ़लीभूत हो रहे है इसकी सुध कोई नहीं लेता। कोई पलट कर ये भी नहीं देखता की सुविधा के नाम पर जारी हुआ करोड़ो रुपया किसी काम या जरूरतमंद पर खर्च हुआ भी या किसी के बैंक अकाउंट की शोभा बढ़ाने चला गया।

गोपनीयता बनाये रखने की शर्त पर हाल ही में एक सरकारी स्कूल के शिक्षाकर्मी ने बताया कि वे जिस कक्षा को पढ़ाते है उसमें 100 से अधिक विद्यार्थी है लेकिन ऑनलाइन क्लास में महज 4-5 विद्यार्थियों की ही उपस्थित रहती है उनमें से भी कोई ऑनलाइन क्लास का वीडियो देखें बगैर ही चला जाता है तो किसी के पास पर्याप्त डाटा नहीं होता है। इस स्थिति में महज खाना पूर्ति के लिहाज से तकनीकी व शिक्षा विभाग का मजाक बनाना और बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ सही नहीं है।
बावजूद इसके ऑनलाइन स्टडी के नाम पर धड़ले से सरकार और जिम्मेदार वाहवाही बटोर रहे है और इनके जैसे लाखों सच्चे शिक्षाकर्मी बेबस और हताश होकर बिना विद्यार्थियों के ऑनलाइन पढ़ाई करा रहे है।

इन सब में उन माता-पिता और अभिभावकों की स्थिति पर तो बात शेष ही है जो अपने बच्चों के उत्तम स्वास्थ्य के लिए इस संकट और तालाबंदी के दौर में रोटी के आटा की जुगत भिड़ाने में परेशान है अब वे अपने बच्चों के स्वास्थ्य को ताक पर रखकर उन्हें घण्टों डिजिटल स्क्रीन के सामने बैठकर की जाने वाली मॉर्डन पढ़ाई के लिए डाटा कहा से लाये!

कुलदीप नागेश्वर पवार (पत्रकार)
पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययनशाला इंदौर

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