मजदूरों के पेट की आग पर सिकती राजनीतिक रोटियां
वोट देते समय इन भोले भाले गरीबों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनकी इस कर्तव्य परायणता का फल उन्हें स्वजनों की सिसकियों, छालों,आंसू और लाशों के रूप में सरकारें लौटायेगी। आज फ़र्श से लेकर अर्श तक, और आम से लेकर ख़ास तक सभी के जहन में जितना ख़ौफ कोरोना कक एहतियात बरतने को लेकर है, उससे कही ज्यादा हमदर्दी तपती धूप में सड़कें नापते इन लाचार मुसीबत के मारे मजदूरों के लिए है। अच्छे दिन दिखाने से लेकर सबका साथ, सबका विकास जैसे संकल्प और आत्मनिर्भर भारत जैसे सराहनीय प्रयासों से इस संकटकाल में विश्व के समक्ष नेतृत्वकारी उभरते भारत में मजदूरों की ये हदयविदारक दशा किसी भी मनुष्य को आत्मग्लानि से भर देने के लिए पर्याप्त है।
आज देश में 1 लाख से अधिक लोग कोरोना महामारी की गिरफ़्त में आ चुके है तो वहीँ 3 हजार से अधिक लोग इसके चलते अपनी जान गवा चुके है। संक्रमण के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए केंद्र सरकार के सभी राज्यों के साथ संवाद करके विभिन्न स्थानीय परिस्थितियों को देखते हुए देशभर में लॉक डाउन के चौथे चरण को 31 मई तक के लिए प्रभावी करने के बाद भी लगातार भिन्न-भिन्न राज्यों से हो रहें प्रवासी मजदूरों के पलायन को लेकर कोई उचित रणनीति देश में देखने को नहीं मिली है। बल्कि हालत दिनबदिन और बिगड़ती नज़र आ रही है। महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश समेत अन्य राज्यों की सीमाओं व सड़कों पर हर दिन हजारों प्रवासी मजदूरों की भीड़ अपने घरों को जाने के लिए जमा हो रही है। वृद्धजनों, महिलाओं-पुरुषों सहित मासूम बच्चे भी इस भीड़ का हिस्सा है। इस लाचारी के सफ़र के बीच न जाने कितने बेबस भुखमरी,बदहाली औऱ सड़क दुर्घटनाओं में अपनी जान गवा चुके है बावजूद इसके बेशर्म राज्य सरकारों की अनदेखी यथावत बनी हुई है।
मजदूरों की बढ़ती तकलीफ़ों को देखते हुए कई समाजसेवी जनों और संस्थाओं ने अपने स्तर पर राहत कार्यों को शुरू किया है,लेकिन दुखद है कि इन परिस्थितियों के बीच भी जनसेवक राजनेता अपने-अपने क्षेत्रों से छूमंतर है। यह वहीं राजनेता है जो चुनाव रैलियों के समय इन्हीं मजदूरों के लिए भोजन, राशन, पैसों,आवागमन हेतु बसों आदि की सुविधाएं बिना देरी के मुहैया कराया करते है,लेकिन आज मुसीबत की घड़ी में अगर ये राजनेता इन गरीब मजदूरों को लेकर कुछ कर रहे है तो बस वहीं अपना उल्लू सीधा करने की गंदी राजनीति।
केंद्र के राहत पैकेज की ज़मीनी हक़ीक़त
इस महामारी में पलायन करते इन प्रवासी मजदूरों ने सरकार के लिए मुसीबतों को बढ़ा दिया है। मजदूरों के लगातार बढ़ते पलायन की दर्दनाक तस्वीरों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में जनता के भीतर केंद्र व राज्य सरकारों के प्रति असंतोष पैदा कर दिया है। कहने को तो केंद्र सरकार ने इस महामारी के दौर में देश को आत्मनिर्भर बनाने व राहत के नाम पर 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की है,लेकिन इस राहत पैकेज का लाभ इन गरीबों से अधिक पूंजीपतियों को मिलेगा इसमें कोई संशय नहीं होता। आज की स्थिति में तत्काल राहत सहायता के नाम पर इस रकम से इन मजदूरों को 20 रुपये भी मिलना स्वप्न की भांति है।
प्रवासी मजदूरों के धड़ल्ले से जारी पलायन व इनकी मदद के लिए लगें राहत शिविरों में प्रतिदिन लाखों की संख्या में लोगों का हुजूम उमड़ रहा है और ये यहाँ से देश के अलग-अलग हिस्सों में फैले जाते है। छुआछूत से फैल रही इस बीमारी के बाद भी इन राहत स्थानों पर सोशल डिस्टेंसिग या किसी अन्य सुरक्षा व्यवस्था का इंतजाम कोसों दूर तक नज़र नहीं जाता है। स्थानीय शासन व प्रशासन भी स्वयं की जिम्मेदारियों और नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए इस बड़ी चूक को आँखे मूंदे देख रहे है। लेकिन इन्हीं मजदूरों व सेवादारों की भीड़ में किसी एक कोरोना संक्रमित व्यक्ति का भी पाया जाना वहाँ उपस्थित उन लाखों लोगों के साथ उनके क्षेत्रों के लिए भी मुसीबतों को बढ़ा सकता है।
इस स्थिति में महत्वपूर्ण हो जाता है कि राहत सेवा स्थलों पर सुरक्षा व सोशल डिस्टेंसिग को लेकर विशेष ध्यान दिया जाये।
मजदूरों की अफरातफरी के बीच ये भी जरूरी
नेशनल मीडिया,अखबारों में प्रवासी मजदूरों की स्थिति, बेबसी, से जुड़ी खबरें सुर्खियां और टीआरपी बटोर रही है। लेकिन इस बीच यह भी विचार करना होगा कि इस अफरातफरी के बीच कही कोई बड़ी चूक न हो। जरूरी है कि हम ये जाने की आश्चर्यजनक मजदूरों की बेबसी,पीड़ा को इतना आकर्षक ढंग क्यों दिया जा रहा है। इन बेबसों के दर्दनाक सफ़र के बीच तब्लीगी जमात की शर्मनाक हरकतों, मौलाना साद के गायब होने, शराब के लिए लगी भीड़, सब्जियों व राशन की खरीद फरोख्त, किसानों की फसलों के बेभाव बिक्री, सीमाओं पर बढ़ते तनाव, देश में तेजी से फैलते संक्रमण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को नजरअंदाज क्यों किया जा रहा है। आख़िर मजबूर मजदूर वर्ग के समक्ष पूरे देश की सहायता, सतर्कता, सुरक्षा व्यवस्था से समझौता क्यों किया जा रहा है?
यह ज्ञात होते हुए भी की इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है, बावजूद इसके लॉक डाउन के चौथे चरण तक भी संक्रमितों की जांच के लिए प्रयोग में लाये जा रहे थर्मल स्कैनर व स्क्रीनिंग प्रक्रिया को लेकर कोई गाइड लाइन किसी भी राज्य ने जारी नहीं की है, कई कर्मचारियों व अधिकारियों के इसके अनुचित उपयोग की घटनाएं सामने आई है। जिससे कंटेन्मेंट एरिया, रेड जोन के साथ- साथ अन्य जोन में भी संक्रमितों की सटीक पहचान कर पाना मुश्किल कर देता है।
यहीं छोटी-छोटी गलतियां हमें कोरोना की गिरफ़्त में जकड़ती जा रही है। जरूरी है कि राज्य सरकारें आपसी राजनीतिक स्वार्थ व आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति को ताक पर रखकर एकजुटता से इस महामारी का सामना करें और नई नीतियों व योजनाओं के चलते जरूरतमंद मजदूरों की सहायता करें। राजनेताओं को अपने क्षेत्रों में सक्रियता से उतरना होगा साथ ही सत्ता पक्ष को विपक्ष व समाजसेवी संस्थाओं के साथ मिलकर बचाव व सहायता की कारगर पहल करनी चाहिए।
कुलदीप नागेश्वर पवार
पत्रकारिता भवन इंदौर
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