एक मासूम फिर ना बन जाए बागी!
कुलदीप नागेश्वर पवार (पत्रकार)
पत्रकारिता भवन इंदौर
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बीते दिन फिल्मी एनकाउंटर की फेहरिस्त में एक ओर किस्सा जुड़ गया। इस बार एनकाउंटर में कानपुर का गैंगस्टर विकास दुबे मारा गया था। जिसे पिछले दिनों कानपुर में हुई एक मुठभेड़ में 8 पुलिसकर्मियों को मारने का दोषी ठहराया गया था। दुबे राजनीति और जुर्म की दुनिया का मंझा हुआ खिलाड़ी था। अतीत में बीजेपी, सपा,बसपा से उसकी नजदीकियां खुद इस बात का सबूत है औऱ उसके गुनाहों की फेहरिस्त की गवाह भी। वरना ऐसे ही कोई इतने सालों तक जुर्म करके और एक राज्य मंत्री की हत्या करके आज़ाद नहीं घूमता और न ही किसी के इतने हौसले बुलंद होते है।
यूपी पुलिस का किया ये एनकाउंटर इतना स्क्रिप्टेड लगता है जैसे इसकी पटकथा स्वंय किसी कुशल फिल्मी लेखक ने लिखी हो और निर्देशन किसी एक्शन फिल्म के डायरेक्टर ने किया हो। जब एनकाउंटर की खबर आम लोगों तक पहुंची तो सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उत्तरप्रदेश पुलिस, भारतीय न्यायिक व्यवस्था और फिल्म इंडस्ट्री समेत कई लोगों पर सवाल खड़े किए हैं। लेकिन इन सब के बीच जिस पर शायद किसी का ध्यान न गया हो तो वो थी विकास दुबे की पत्नी प्राची व उसके बेटे की वो एक तस्वीर जिसमें वो दोनों पुलिस के सामने घुटनों पर बैठे है।
ये एक तस्वीर कई सारे सवालों और हमारे सिस्टम की नाकामियों को उजागर करती हैं। और भविष्य की अनहोनी के लिए सचेत भी करती है।
न्याय और बदले के बीच भी फ़र्क़
जिस फिल्मी अंदाज में विकास दुबे की गाड़ी पलटी यकीन मानिए यदि वह नहीं पलटती तो उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में कई राजनेताओं और अधिकारियों की कुर्सी जरूर पलट जाती शायद यही एक बड़ा कारण रहा इस एनकाउंटर का क्योंकि हमनें फिल्मों में देखा है कि एक बाहुबली या गैंगस्टर का राजनेताओं व अधिकारियों से किस तरह का नाता होता है। या कहें कि राजनेता उद्योगपति और बाहुबली की बैसाखी से ही चलता है तो इसमें भी कोई गुरेज़ नहीं होगा। क्योंकि फिल्में समाज का आईना होती है और समाज इन्हीं से प्रेरित भी होता ही है।
तो इसका मतलब तो फिर ये होगा कि कोई फिर इस फ़िल्मी एनकाउंटर का बदला लेने के लिए कोई उठ खड़ा होगा। लेकिन कैसे और क्यों इसका जवाब हमारे सिस्टम,इसमें घुसे पड़े भ्रष्ट अफसरों और राजनेताओं को देना चाहिए क्योंकि कमजोरियां तो इन्हीं की रही है तभी तो एक मामूली सा गली का गुंडा इतना बड़ा गैंगस्टर बन गया है। और उसकी पहुँच और दहशत इतनी बढ़ जाती है कि हमें उससे निपटने के लिए न्यायिक व्यवस्था से हटकर एनकाउंटर का सहारा लेना पड़ा है।
विकास दुबे के ख़त्म होते ही नई कहानी की शुरुआत
यकीन मानिए यदि विकास दुबे अपना मुंह खोलता तो कई घिनौने राजनीतिक व प्रशासनिक चेहरे बेनकाब हो जाते हैं इसलिए उसका एनकाउंटर एक मजबूरी सा बन गया था । ख़ौफ़ कुछ ज्यादा ही रहा होगा तभी तो बिना हतकड़ी लगाए इसे ले जाया गया,जब वो पलटी हुई गाड़ी में से पुलिस की गिरफ्त से भागा तो गोलियां उसकी पीठ के बजाय सीने पर लगीं। यक़ीनन ये उत्तरप्रदेश पुलिस की बहादुरी रहीं वो बात ओर है कि विकास दुबे इसी बहादुर पुलिस को झांसा देकर उत्तरप्रदेश,दिल्ली, हरियाणा जैसी बॉर्डर फांदते हुए उज्जैन तक पहुँच गया जायज़ है यहाँ तक उसके आने में भी कई नेताओं और अधिकारियों जिन्हें उसने पाल रखा होगा उसने उनकी मदद भी की होगी ही वरना हाई अलर्ट के बाद बचते हुए यहाँ पहुँचना सामान्य तो नहीं। जनता,जननेता, सिस्टम और उसके अधिकारी सभी फिल्में देखकर इतने समझदार तो हो ही चुके है और उन्हें अच्छे से पता है कि कहानी कैसी और क्यों बुनी गई इसलिए इस पर बात नहीं करते ।
पुलिस महकमे,न्यायालय और फ़िल्म इंडस्ट्री में सुधार जरूरी
मुद्दे की बात है कि तस्वीरों में जिस तरीके से दिखाई दे रहा है कि पुलिस ने विकास दुबे की पत्नी व बेटे के साथ जैसा सलूक किया वह एक नई बदले की कहानी को रचने वाला मालूम होता है। यह चिंता का विषय है कि चंद रुपयों के खातिर जो पुलिस वाले एक गैंगस्टर के हाथों बिक जाते हैं वह क्या देश की आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने लायक हैं ?
एक दिन में कोई भी इतना बड़ा गैंगस्टर नहीं बनता इसके लिए वर्तमान योगी सरकार पर सवाल खड़े करने से पहले यह भी देखना जरूरी है कि अब तक विकास दुबे को किन-किन राजनेताओं ने बचाया और संरक्षण दिया है ? देखने को मिलता है कि आज देश में हो रहे हैं एनकाउंटर पर जनता खुश होती है लेकिन इसी बीच तरस आता है देश की न्यायिक व्यवस्था पर जो दिन प्रतिदिन खोखला होता नजर आता है। ये मैं नहीं देश के बुद्धिजीवी पत्रकार हो रहे इन एनकाउंटर की पैरवी कर रहें है वहीँ बताते है यक़ीन मानिए आलम यही रहा तो वो दिन दूर नहीं जब न्यायालयों में ताले पड़ जायेंगे और सभी मसलें फिल्मों की तरह तमंचे पर डिस्को करते नजर आएंगे।
फिल्मों और धारावाहिक को देखकर राजनेता,अधिकारी और मुजरिम तो शातिर हो गए है लेकिन पुलिस की स्थिति वहीं बनी हुई है जरूरी है कि उसकी प्रशिक्षण शैली में सुधार हो, कछुए जैसी चाल से बढ़ती न्यायिक प्रक्रिया को आपराधिक व संवेदनशील मामलों में त्वरित कार्यवाही करने की मजबूत स्थिति में लाया जाए ताकि लोगों का विश्वास बंदूक की बजाय क़लम पर टिका रहें।
जरूरी है कि भारतीय सेंसर बोर्ड देश में प्रसारित हो रही फिल्मों,धारावाहिक व अन्य कार्यक्रमों के दिशा निर्देशों पर बारीकी से पुनः विचार करें ताकि प्रत्येक वर्ग में सही सन्देश पहुँचे क्योंकि बहुत हद तक फिल्मों से ही समाज सीखता है।
अगर आज की स्थितियों को गम्भीरता से लेते हुए इनमें सुधार नहीं किया जाता है तो भविष्य में निश्चित ही वासुदेव कुटुम्बकम, अहिंसा परमो धर्म, सत्यमेव जयते जैसे वाक्य अपनी अस्मिता खो देंगे और उस समय की स्थितियों में ईमानदार पुलिसकर्मियों की शहादत, भ्रष्ट राजनेताओं, पुलिसकर्मियों का वर्चस्व और विकास दुबे जैसे बाहुबली अपराधियों का ख़ौफ़ और काम होने के बाद उसका एनकाउंटर करने के किस्से सब सामान्य घटनाएं बन जायेगी। जरूरी है वक़्त रहते हालातों में सुधार किया जाए कहीँ इस खोखले सिस्टम,धीमी न्याय प्रक्रिया,गन्दी राजनीति और संस्कृति व समाज के विपरीत उकसाती फिल्मों के चलते फिर कोई मासूम बागी बनकर बदला लेने का मन न बना लें।