संविधान, संघीय प्रणाली और राजनीति: निधि सत्यव्रत चतुर्वेदी
2014 में जब से देश में भाजपा की सत्ता आई है, जनता द्वारा चुनी गई सरकारों का हाल बेहाल होने लगा है। भाजपा अपनी सत्ता लोभ की पूर्ति के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी गई सरकारों में सेंध लगा कर उन राज्यों में अपनी सरकार बनाने में जुटी है। जन प्रतिनिधियों को कभी पद का तो कभी पैसे का लालच देकर अपनी पार्टी से शामिल कर सरकारें गिराना ही अब भाजपा की रणनीति बन गई है। भाजपा पूरी तरह से अँग्रेज़ सरकार द्वारा अपनाई गई नीति “फूट डालो और राज करो” पर अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंक रही है। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण हम राजस्थान के रूप में देख सकते हैं।
भाजपा ने लोकतंत्र में चुनावों को निरर्थक सा कर दिया है। यदि प्रदेश में भाजपा की सरकार नहीं बन पाई तो भाजपा द्वारा मनोनीत प्रदेश के राज्यपाल संवैधानिक प्रक्रिया को दरकिनार कर उस प्रदेश की सरकार गिरवाने में एक अहम भूमिका निभाते हैं। आइये इसके कुछ उदाहरण देखते हैं।
अरुणाचल प्रदेश (2014)
2014 में 60 सीटों वाली अरुणाचल विधानसभा में कांग्रेस 42 सीट जीतकर विजयी हुई और नवाम तुकी को दोबारा मुख्यमंत्री चुना गया। लेकिन केवल 11 सीटे जीतने वाली भाजपा ने एक ऐसा खेल खेला जिसे कांग्रेस समझ भी ना पाई। 2015 में भाजपा ने अपने भरोसेमंद ज्योति प्रसाद राजखोवा को वहां का राज्यपाल नियुक्त किया और कांग्रेस के असंतुष्ट खेमे में सेंध लगाना शुरू कर दिया। फिर एक सिलसिलेवार असंवैधानिक और अनैतिक घटनाक्रम की शुरुआत हुई। इसमें राज्यपाल द्वारा विधानसभा के ग्रीष्मकालीन सत्र को एक महीने पहले बुलाने की पेशकश से लेकर बागी़ और भाजपा नेताओं की मिलीभगत से तत्कालीन मुख्यमंत्री को हटाए जाने और दूसरे मुख्यमंत्री की घोषणा करने तक का खेल खेला गया। मामला कोर्ट तक गया। पर उसी बीच राज्यपाल ने वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की पेशकश की। और एक लंबे अंतराल की जद्दोजहद के बाद अंततः भाजपा अपनी कूट-नीति में सफल हुई और पूर्वोत्तर में अपना शासन लाने की उसकी मनोकामना पूरी हुई।
उत्तराखंड (2016)
कुछ ऐसा ही हाल उत्तराखंड का हुआ जहां राज्यपाल के के पॉल ने मुख्यमंत्री हरीश रावत से बहुमत साबित करने को कहा। इससे पहले की रावत अपना बहुमत साबित कर पाते, राज्यपाल ने वहां बिना किसी ठोस कारणों के राष्ट्रपति शासन लगाने का दवाब बनाया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में इस राष्ट्रपति शासन को खारिज कर दिया था। पर इसी बीच भाजपा ने विजय बहुगुणा सहित 9 विधायक अपनी ओर खींच लिए और हरीश रावत सरकार अल्पमत में आ गई। दिलचस्प बात यह है कि यहीं से रिजॉ़र्ट राजनीति की शुरुआत हुई।
गोवा (2017), मणिपुर
गोवा विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा से अधिक सीटें जीती पर भाजपा ने वहां भी विधायकों की खरीदी फरोख्त कर जोड़ तोड़ की राजनीति से सरकार बनाने की पेशकश की। यहाँ भी राज्यपाल का साथ उसको मिला।
यही हाल मणिपुर का रहा जहां राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला ने भाजपा, जो की 21 सीट के साथ दूसरे नंबर पर थी, को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया।
महाराष्ट्र (2019)
चुनाव के नतीजे आने के बाद शिवसेना ने भाजपा को ढाई –ढाई साल मुख्यमंत्री का प्रस्ताव दिया। पर सत्ता पर पूरे नियंत्रण की लालसा में भाजपा को ये नागवार गुज़रा। जिसके चलते भाजपा शिवसेना गठबंधन टूट गया। फिर कई नाटकीय घटनाक्रम के चलते राज्यपाल ने आधी रात को भाजपा और एनसीपी के अजीत पवार को सरकार बनाने का न्योता दिया। बाद में जब किसी भी दल ने सरकार बनाने की पेशकश नहीं की तो राज्यपाल ने 12 नवम्बर को सुबह 5:47 पर राष्ट्रपति शासन की घोषणा कर दी। 23 नवम्बर को अचानक सुबह 5:47 बजे राष्ट्रपति शासन हटाकर 8:00 बजे देवेन्द्र फडनवीस को मुख्यमंत्री पद और अजीत पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी गई। हालांकि बाद में राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले शरद पवार ने स्थिति को संभाला और महाराष्ट्र में महागठबंधन की सरकार बनी।
मध्य प्रदेश (2020)
इस समय तक कोरोना महामारी की शुरुआत भारत में हो गई थी। पर जहाँ पूरी दुनिया और कमलनाथ सरकार इस महामारी से बचाव का उपाय ढूँढ रही थी, वहीँ भाजपा का एक खेमा इस आपदा को अवसर में बदलने में लगा था। भाजपा ने कांग्रेस में असंतुष्ट नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया को अपना साथ देकर कमलनाथ की सरकार को बड़ा झटका दिया। सभी 22 सिंधिया समर्थकों ने इस्तीफा दे दिया। कांग्रेस अल्पमत में आ गई और कमलनाथ के अथक प्रयासों के बावजूद उन्हें इस्तीफ़ा देना पडा।
अब भाजपा की कूटनीति देखिये की शिवराज सिंह के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही मोदी जी आ गए अपने मन की बात लेकर और पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा कर दी। इस देरी का खामियाजा़ हम लोगों को अभी तक भुगतना पड़ रहा है।
राजस्थान (2020)
और फिर आ गया राजस्थान का नंबर।
अभी राजस्थान भी उसी राजनीतिक संकट से जूझ रहा है जिस तरह कुछ महीने पहले मध्य प्रदेश गुज़रा था। अशोक गहलोत एक सफल राजनेता है जो अभी तक स्तिथि को संभाले हुए हैं वरना भाजपा ने सिंधिया की तरह ही सचिन पायलट को मोहरा बना कर सता प्राप्ति के लिए प्रयास तो प्रारंभ कर ही दिए हैं। सचिन पायलट का बार बार अपना राग बदलना स्पष्ट संकेत देता है कि उनके विचार उनके न होकर किसी और के दिमाग की उपज हैं। जब कांग्रेस ने इस अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए देश के सभी राजभवनों के सामने शांतिपूर्वक प्रदर्शन करना चाहा तो उसे भी दबा दिया गया। इस विरोध का तत्कालीन कारण भले ही सरकार बचाना हो पर उसका दीर्घकालीन उद्देश्य संविधान के मूल्यों को पुनः स्थापित करना है।
सच, अगर किसी ने आपदा को अवसर में बदला है तो वो मोदी-अमित की जोड़ी ने। मोदी सरकार ने देश के सरकारी तंत्र जैसे कि सीबीआई, ईडी और यहां तक कि न्यायपालिका को भी अपने हितों के लिए इस्तेमाल किया है।
भाजपा पर जब भी कोई विकट संकट आता है, खास तौर पर चुनाव, तो देश में राजनीति को देशभक्ति का जामा पहना दिया जाता है। चाहे चीन से तकरार हो या पाकिस्तान की तरफ से फायरिंग या कोई सर्जिकल स्ट्राइक।
हमेशा देश की जनता को मुद्दे से भटका कर उसे देशभक्ति में उलझा दिया जाता है।
आज देश एक महामारी से जंग लड़ रहा है पर मोदी जी थाली बजवा कर और दिए जलवा कर बीमारी को भगाने में लगे हैं और स्पष्ट है की मोदी जी को भाइयों और बहनों की परवाह नहीं है। बस उन्हें तो अपनी सरकार का विस्तार कर लोकतंत्र को हिटलर तंत्र बनाने की धुन सवार है। हमारे देश के संविधान ने हमें प्रजा से नागरिक बनाया। पर उसी संविधान के दुरुपयोग से आज हम नागरिक से प्रजा बनते जा रहे हैं।
क्या यह हमारा कर्तव्य नहीं है कि हम अपने देश के संविधान को नष्ट होने से बचाएं?