अब दौर है वामपंथि पापों के प्रायश्चित का

अब दौर है वामपंथि पापों के प्रायश्चित का

बॉलीवुड की कई फिल्में ऐसी है, जहाँ शुरू से लेकर आखिरी तक हम जिसको नायक समझ रहे होते हैं वो आखिरी में खलनायक निकलता है. जिसको खलनायक समझतें हैं, वो अचानक नायक बन जाता हैं. नायक के खलनायक और खलनायक के नायक बनने तक की यात्रा में हमारी कोई भूमिका नहीं होती क्योंकि पटकथा लेखक अपने संवादों से एवं निर्देशक अपने दृश्यों से हमारे दिमाग के साथ खेलता है. फ़िल्म के आधे से अधिक हिस्से में जिसे हम शैतान समझ रहें थे वो भगवान निकलता है और भगवान में हमें अचानक शैतान नज़र आने लगता हैं.
इस पूरी प्रक्रिया का नाम है “गेम ऑफ परसेप्शन”.
अपने हिंदी फिल्मों के पटकथा लेखक जिनमें ज़्यादातर FTTI पुणे में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, ये उनकी जादूगरी है.  

भारत के लोग भावनाओं से पोषित होते हैं. फ़िल्म में भी खलनायक का किरदार करने वाले व्यक्ति को समाज में घृणा की नज़र से देखा जाता है. याद कीजिए, बचपन में टेलीविज़न पर जब ललिता पंवार आती थी तो उसको देखते ही घर की माता-बहनें व्यंग्य तीर चलाने लगती थी. यह सभी उदाहरण बस यह बताने की कोशिश करते हैं कि कैसे किसी व्यक्ति जिसे हमने देखा नहीं उसके बारे में अपनी राय बनाते हैं. असल में वो हमारी राय नहीं होती बल्कि प्रचार माध्यमों पर बैठे लोगों के विचार होते हैं. जिसे बड़ी ही चतुराई से वो मनोरंजन के नाम पर हमारे मन मष्तिष्क पर स्थापित कर देते हैं, और हम भी वही मानने, कहने और सोचने लगते हैं, जो वो मानते हैं, जो वो कहते हैं, जो वो सोचते हैं.
पर्दे पर देख छवि बनाने के हम इतने आदि हो गए हैं कि हम कभी जानने की कोशिश ही नहीं करते कि आखिर पर्दे के पीछे कौन है? ये बात और भी दूर की कौड़ी है कि हम यह जान पाए, उसकी नियत क्या है?
इस “गेम ऑफ परसेप्शन” के आज़ादी के बाद के सबसे बड़े शिकार रहे है वीर सावरकर.
नई पीढ़ी का गुरु गूगल है, जिससे वो सब पूछतें हैं . यूट्यूब, फेसबुक पर सुनते, देखते और पढ़ते हैं. आज आपको सावरकर को जानना है तो आप यूट्यूब,फेसबुक पर सर्च करेंगें. यहाँ दिखाई देगा कि बीबीसी हिंदी चैनल द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंट्री “सावरकर हीरो या विलेन ?” लगभग 17 मिनट के इस चलचित्र को देखकर आप सावरकर के बारे में अपनी राय बना सकते हैं, देखने के बाद छवि क्या बनती हैं, ये वहाँ कमेंट बॉक्स में लिखी टिप्पणियों से स्पष्ट हो जायेगा कि अब तक 23 लाख लोग इसे देख चुके हैं। दूसरे शब्दों में देश दुनिया में 23 लाख लोग और बढ़ गये हैं- जो सावरकर को विलेन , कायर , भारत के टुकड़े करने वाला , गद्दार , अंग्रेज़ों से माफी मांगने वाला आदि मानते हैं. मेरी बात की तस्दीक डाक्यूमेंट्री देखने बाद नीचे लोगों द्वारा लिखे गए कमेंट्स भी करते हैं.

अब अत्याधिक आवश्यक रूप से परदे के पीछे देखा जाए तो हम पाएंगें कि-  इस डॉक्यूमेंट्री में जिनका सबसे अहम रोल है अर्थात इसके निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, उनका नाम है रेहान फज़ल. ये महोदय बीबीसी हिंदी के संपादक भी है. इनको जानना है तो गूगल पर सर्च कीजिये आपको एक लेख मिलेगा जो फरवरी 2002 में गुजरात दंगों पर कवरेज़ के दौरान आपबीती पर लिखा गया है. गोधरा में कार सेवकों को जेहादियों द्वारा ज़िंदा जलाने से दंगे शुरू हुए थे. रेहान फज़ल महाराज बड़े सुविधाजनक रूप से यह तो भूल ही गए साथ ही भगवा पहने हिन्दू उपद्रवियों का चरित्र चित्रण करने लग गए थे. किसी गवाह की ज़रूरत ही नहीं, यहाँ तो गवाह भी वे ही थे और पीड़ित भी शब्दों की जादूगरी इस खूबसूरती से की गयी आपको भगवा में आतंक नज़र आने लगे. कुल मिलाकर लेख में वास्तविकता कम और काल्पनिकता कहीं ज़्यादा है. इनके वैचारिक प्रतिबद्धता किधर है ये उनके फेसबुक पेज से स्पष्ट हो जाती है. पिछले कुछ लेख पोस्ट किये उनके शीर्षक (हेडिंग) से समझ आ जायेगा. याद रहे “गेम ऑफ परसेप्शन” (छवि निर्माण के खेल) में शीर्षक का बहुत महत्व होता है- 
रेहान फज़ल के कुछ लेख शीर्षक-


1 मई 2020
बब्बर शेर की तरह टूट पड़ता था (सोशलिस्ट नेता मधु लिमये पर लेख महिमामंडन)

2 मई 2020
हिंदुत्व की राजनीति का पहला झंडावाहक 
(बलराज मधोक की अटलबिहारी वाजपेयी अन्तर्विरोध हिंदुत्व नकरात्मक व्याख्या)

4 मई 2020
छोटे कद के सुल्तान ने कैसे अंग्रेजो के छक्के छुड़ा दिए थे।
टीपू सुल्तान की जिंदगी के आखिरी पल।
(दोनों लेखों में टीपू सुल्तान का महिमा मंडन , स्मरण रहे टीपू सुल्तान पर कर्नाटक हिंदुत्व वादियों का स्टैंड ,और शाहरुख खान की आने वाली फ़िल्म )

11 मई 2020
1857 के ग़दर जब दिल्ली ने देखा मौत का तांडव (बहादुर शाह जफर और उनके साथियों का महिमामंडन, लेकिन 1857 को विद्रोह नही स्वतंत्रता संग्राम कहने वाले सावरकर की डाक्यूमेंट्री में किताब की भूमिका को जादुगरी से छुपाया गया)

16 मई 2020
जनरल करियप्पा जिन्हें पाकिस्तानी भी सलाम करते थे (वास्तविकता पाकिस्तानी सबसे ज्यादा नफरत भारत के सेना से करते है असंख्य उदाहरण है )

और अनेक तथ्य, तर्क व उदाहरण है जिससे साबित होता है कि राष्ट्रवाद के प्रति इनकी क्या सोच है? और वामपंथियों के प्रति अटूट प्रतिबद्धता.
रेहान फज़ल की डॉक्यूमेट्री की शुरुआत में ही वो बताने की कोशिश करते है कि सावरकर को भारत रत्न देने के प्रयास 2002 में भी किये गए थे, जिन्हें सफल नहीं होने दिया गया था.लगता है वे कहना चाहते है कि आगे भी सफल नहीं होने देंगे. 1906 में इंडिया हाउस लंदन में गांधी जी और सावरकर की मुलाकात में उनकी जाति क्यों बताई गयी इसके दो कारण है, एक तो वामपंथी हमेशा हिन्दू धर्म को ब्राह्मण सुप्रीमेसी वाला धर्म साबित करने की जी-जान से कोशिश करते रहे हैं. दूसरा वो गांधी और सावरकर के विरोध बताकर सावरकर ने ही गांधी की हत्या का षड्यंत्र रचा था, कि पृष्ठभूमि तैयार कर रहे है. रेहान फैज़ल ने जिसे सावरकर विचार एक्सपर्ट के तौर पर जिन चार लोगों को डॉक्यूमेट्री में शामिल किया है उसमें से एक है घोर वामपंथी, निरंजन तकले. आपको याद होगा पुलवामा अटैक में शहीद जवानों की जाति बताता एक लेख वामपंथी पत्रिका केरेवान(कारवां) में लिखा गया था, जिसका शीर्षक था “ऊंची जातियों के हिन्दू राष्ट्रवाद की भेंट चढ़े पिछड़ी जातियों के जवान”. निरंजन तकले पिछले कुछ वर्षों से इसी कारवां मैगज़ीन में सक्रिय है, वो हिंदुत्व से कितनी नफ़रत करते है ये उनके ट्विटर, यूट्यूब के लेख और भाषणों से पता चल जाएगा. सावरकर से कितनी नफ़रत करते है ये इस बात से समझ में आ जाएगा के देश के गृह मंत्री अमित शाह का अपने बैठक कक्ष में सावरकर की तस्वीर लगाना तक इन्हें इतना नागवार गुज़रा कि जस्टिस लोया केस में भी बिना तथ्यों के आधार पर अमित शाह पर आरोपों की झड़ी लगाए हुए है. साफ़ है कि निरंजन तकले सावरकर के बारे में क्या कहेंगे? सावरकर हीरो या विलेन? बीबीसी हिंदी की डॉक्यूमेट्री में निरंजन तकले समझाने की कोशिश करते है कि सावरकर अंग्रेज़ों के एजेंट थे. अपनी बात के समर्थन वो तर्क देते है, जब सावरकर अंडमान की सेल्युलर जैल (कालापानी) गये थे तब उनका वज़न 112 पौंड था बाद में उनका वज़न बढ़कर 126 पौंड हो गया.

जबकि 18 जनवरी 1920 को सावरकर के बड़े भाई डॉ नारायण सावरकर गांधी जी को लिखे एक पत्र लिखते है- “कल मुझे भारत सरकार द्वारा सूचित किया गया कि कालापानी से रिहा किये जाने वाले लोगों में सावरकर बन्धुओं (वीर सावरकर और गणेश सावरकर) का नाम शामिल नहीं है. मेरे दोनों भाई अंडमान जैल में दस वर्ष से ज्यादा की सजा भोग चुके हैं. उनका (वीर सावरकर ) का वजन 118 पौंड से घटकर 95 पौंड हो गया है”.
आप समझ सकते हैं कि वामपंथियों ने सावरकर को कलंकित करने हेतु कितने झूठ और कुतर्क गढ़े होंगे तब जबकि आज़ादी के बाद से ही इंडियन सेंटर ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च जैसी सरकारी अधिकार और मान्यता प्राप्त संस्थाओं पर वामपंथी अतिवादियों का कब्ज़ा रहा है. रामचंद्र गुहा , रोमिला थापर , इरफान हबीब जैसे  इतिहासकारों के कारण हम अबतक गुलामी ,पराजय और पराभव के इतिहास पढ़ रहें हैं. श्मशुल इस्लाम, मारकंडेय काटजू को पढ़कर सावरकर से घृणा नहीं तो और हो भी क्या सकता है? 

डॉक्यूमेट्री के दूसरे बड़े इतिहासकर वामपंथी विद्वान नीलांजन मुखोपाध्याय है। बीते साल इनकी एक पुस्तक “द आरएसएस आइकॉन ऑफ द इंडियन राईट” में एक बार फिर से सावरकर ,गोलवलकर और हेडगेवार पर एकतरफ़ा वामपंथी विषवमन का शिकार बनाया गया. नीलांजन मुखोपाध्याय आजकल, द वायर , क्विंट , एनडीटीवी सहित अन्य वामपंथी पत्रिकाओं , चैनलों पर पढ़ें और देखें जा सकते हैं.  ये बड़ी ही चतुराई से सावरकर के लेखन ,क्रांति कार्यों (कर्जन वायली का वध, जैक्सन का वध, अभिनव भारत, मित्रमेला, इंडिया हाउस लन्दन आदि ), जीवन , त्याग , बलिदान और समर्पण को निगल जाते है.उसके बाद उन्हें अंग्रेज़ों का एजेंट और गांधी हत्या का दोषी साबित करने की कोशिश में जुट जाते है. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी, इस बात की वामपंथी व्याख्या अपने तरीके से करके सावरकर को कायर और देशद्रोही साबित करने की कोशिश करते रहें हैं. वे जहाँ मौका मिलता है इसे उभारने की साजिश करते ही हैं. जबकि सावरकर शुरू से ही अंग्रेजों की कैद से भागने के भिन्न-भिन्न प्रयत्न करते थे. जब लंदन से उनको गिरफ्तार करके एस एस मौर्य जहाज से भारत लाया जा रहा था, तब उनके समुद्र में छलाँग लगाने के पीछे का यही मकसद था. अंडमान की सेल्युलर जैल में रहने के दौरान भी वो यह कोशिश करते रहे. साल 1921 में लन्दन के अखबार “कैपिटल” में डिचर नाम के पत्रकार ने अपने लेख में लिखा था कि कैसे सावरकर बन्धुओं ने जैल में वायरलेस का इस्तेमाल कर भागने का षड्यंत्र रचा था. सेल्युलर जेल के तात्कालिक जेलर बैरी की दुष्टता के बारे में सब जानते हैं, वो सावरकर को सबसे ज्यादा प्रताड़ित करता था. केवल शारीरिक रूप से नहीं बल्कि मानसिक रूप से प्रताड़ना की पराकाष्ठा भी उनको झेलनी पड़ती थी. सावरकर को 13.5 × 7.5 की छोटी सी कोठरी में रखा गया थ. जिसके ठीक पास में फाँसीघर था, जहाँ आये दिन क्रांतिकारियों को फाँसी दी जाती थी. सावरकर समझ चुके थे कि 50 साल सजा पूरी होने के पहले ही उन्हें प्रताड़ित करके जैल में मारने का मंसूबा पाले बैठी ब्रिटिश सरकार के सामने रणनीतिक पांसा फेंकना चाहिए,  इसी रणनीति का हिस्सा था उनका तथाकथित माफीनामा. छत्रपति शिवाजी ने भी अपने जीवन काल में आगरा के किले की कैद से निकलने की रणनीति को, अथवा अफजल खान को सन्धि पत्र भेजकर हार स्वीकार करने की कूटनीतिक चाल हो, वो ऐसे समयानुकूल रणनीतिक कदम उठाते थे. यहाँ सावरकर के बड़े भाई डॉ नारायण सावरकर और गांधी जी के बीच का एक पत्र का उल्लेख आवश्यक हो जाता है- 25 जनवरी 1920 को गाँधी लाहौर से लिखते है “आपको सुझाव देना कठिन है तथापि मेरा सुझाव है आप एक संक्षिप्त याचिका तैयार करें ताकि यह बिल्कुल स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आए कि आपके भाईसाहब (वीर सावरकर) ने जो अपराध किया था, उसका स्वरूप बिल्कुल राजनीतिक था. मैं ये सुझाव इसलिए दे रहा हूँ ताकि इससे जनता का ध्यान इस ओर आकर्षित करना आसान होगा”.

इससे स्पष्ट है कि सावरकर ने लोग क्या कहेंगे की परवाह किये बगैर ही जेल से बाहर आकर मातृभूमि की स्वतंत्रता हेतु संघर्ष का प्रयत्न किया था. यदि सावरकर जेल की यातनाओं से टूट कर अंग्रेज़ों से समझौता कर लेते तो जेल में लिखी गयी उनकी 6000 कविता की पंक्तियों में मातृभूमि हेतु संघर्ष की उदात्त भावना कैसे होती? बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री एकतरफा न लगे इसलिए रामबहादुर राय का मत भी लिया गया ऐसा लगता है सिर्फ दिखावटी संतुलन के लिए ऐसा किया गया है. रामबहादुर राय से प्रश्न वही पूछा गया जो कन्हैया कुमार, उमर खालिद, शैला रशीद ने पूछ कर विश्वविद्यालय के युवाओं के मन में सावरकर के प्रति घृणा पैदा करते हैं. ”माफी मांगने का मौका तो भगतसिंह को भी मिला था लेकिन उन्होंने फाँसी के फंदे को चूम लिया, लेकिन सावरकर ने माफी मांग ली ऐसा क्यों?” रामबहादुर राय ने बहुत परिपक्व उत्तर दिया, वो आप डॉक्यूमेंट्री में देख सकते हैं. क्या किन्हीं दो महापुरुषों की धूर्ततापूर्ण तुलना कर, हम उन महान आत्माओं का अपमान नहीं करते? लक्ष्य एक होते हुए भी किन्हीं दो क्रांतिकारियों के कार्यों, काल और रणनीति में अंतर होता ही है. क्रांति की धारा के दो महान क्रांतिकारी भगत सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद को ही देखिये, जहाँ भगतसिंह असेम्बली में बम फेंक कर खुद की गिरफ्तार देकर फांसी का फंदा चुमते हुए आत्मबलिदान से स्वतंत्रता के ज्वाल को तेज करते है. तो वहीं चद्रशेखर आज़ाद जब अंग्रेजों से घिर जाते है तो खुद को गोली मारकर आत्मबलिदान करते है. अगर वामपंथियों के कुतर्कों से देखे तो भगतसिंह की तुलना में वो आज़ाद को क्या कहेंगे? लेकिन किन्हीं दो क्रांतिकारियों की तुलना करना ही धूर्ततापूर्ण दुष्टता है, जिसमें वामपंथी माहिर है.  डॉक्यूमेंट्री पूरी होते होते आप पर छवि बन चुकी होती है कि वे देशभक्त नहीं थे. बड़ी साजिश से सावरकर के सामाजिक न्याय, समता पर किये गये उनके कार्यो को विलोपित कर दिया जाता है. वामपंथी शब्दों में शोषित, दलित समाज के उत्थान और सामाजिक बेड़ियों को तोड़ने के सावरकर के विचार और कार्यों को छुपा लिया जाता है. वामपंथी यह कभी नहीं बताएंगे कि सावरकर सदी के सबसे बड़े समाज सुधारकों में से एक थे. उनके विज्ञाननिष्ठ निबंध, किसानों, मज़दूरों पर उनके नीतिगत विचार, स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात संवैधानिक लोकतंत्र में उनकी आस्था और विदेश नीति पर उनकी बातों को कभी सामने नहीं लाया जाएगा. बस उन्हें ब्राह्मणवादी धर्म के फासिस्ट नेता की झुठी छवि प्रस्तुत की जाएगी. जबकि हिंदुत्व पर उनके विराट विचार जिसमें बाबासाहब अम्बेडकर के बौद्ध धम्म में दीक्षा के बाद सावरकर ने कहा था- “अम्बेडकर अब जाकर असली हिन्दू बने है”.

खैर बीबीसी की डॉक्यूमेंट्री के अंत में सावरकर के जीवन पर निष्पक्ष लिखने वाले कुछ दो चार लेखकों में से एक धनंजय कीर के लेखन को तोड़ मरोड़कर बताया जाता है. जिसमे ये साबित करने की कोशिश की जाती है कि न्यायालय ने भले ही सावरकर को दोषमुक्त कर दिया था, लेकिन असल मे गांधी की हत्या का षडयंत्र उन्होंने ही रचा था. कपूर कमीशन भी वामपंथी नेताओं की कुटिल चाल का परिणाम है, ताकि सदियों तक सावरकर के माथे पर मढा कलंक हट न पाए.
वामपंथी लेखकों ने तमाम प्रचार माध्यमों से सावरकर की छवि को खलनायक के रूप में प्रस्तुत करने में भले ही कोई कसर न छोड़ी हो, पर आज का युग सावरकर का युग है. उनके साथ हुए ऐतिहासिक पापों का प्रायश्चित करने का वक्त आ गया है. इतिहास के पुनर्परीक्षण, पुनर्लेखन का और पुनर्निर्माण का. पढ़िए सावरकर को, गढ़िए भारत को.

Mohan Narayan – मोहन नारायण
(चित्र वीर सावरकर जन्मस्थान भगूर जिला नाशिक महाराष्ट्र में 28 मई 2010 को अयोजित कार्यक्रम में सहभागिता के अवसर का)

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